Sanatan Dharm


सनातन धर्म का तात्पर्य है, सत्य एवं शाश्वत। गुण एवं आकार से परे, अविनाशी, अपरिवर्तनशील, निरालंब, अचल, सनातन, सर्वव्यापी, अद्वितीय, अखंड परमात्म सत्ता का ज्ञान एवं स्थिति। परमात्म ज्ञान एवं परमात्म स्थिति का साक्षात्कार हमारी ऋषि३सत्ता ने पाया है। जिनका ज्ञान हमारे वेदों३उपनिषदों एवं गीता आदि वैदिक धर्मग्रंथों में भरा पड़ा है।

मानव जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य सनातन परमात्म३तत्त्व में स्थिति है, किंतु अनायास अविनाशी तत्त्व में अवस्थिति नहीं पाई जा सकती। व्यक्ति की अवस्थिति जिस स्तर पर होती है, उसी स्तर से होकर ही आगे की यात्रा तय की जा सकती है।

जैसे-कोई व्यक्ति प्रथम तल में हो और उसे पंचम तल में पहंुचना हो तो प्रथम तल से जुड़ी सीढ़ी के सहारे वह द्वितीय तल में, पुनः द्वितीय तल से जुड़ी सीढ़ी के द्वारा तृतीय तल में, तृतीय तल की सीढ़ी से चतुर्थ और चतुर्थ तल की सीढ़ी द्वारा पंचम तल में पहंुच पाता है। वैसे ही अभी हमलोगों की अवस्थिति स्थूल मंडल में है। अतः स्थूल मंडल के साधन का आधार लेकर ही ऊर्ध्वमुखी हुआ जा सकता ळें

जो व्यक्ति पुरातन और सनातन दोनों को एक साथ साध लेते हैं, वे मर्यादा पुरुष से पुरुषोत्तम, घट३घटवासी, सर्वव्यापी, असंग, निर्लिप्त, सर्वद्रष्टा निःअक्षर तत्त्व तक पहंुचने में सक्षम हो जाते हैं।

भारतीय धर्म ही सनातन धर्म है, जो सनातन काल से चला आ रहा है और सनातन काल तक चलता रहेगा। बाकी धर्म आने३जानेवाले हैं। अतः गर्व से कहो, ‘हम सनातनी हैं। गर्व से कहो, हम भारतवासी हैं।’

अखिल ब्र›ांड के प्रति कैसा विलक्षण प्रेम है। मानव, मानवेतर प्राणी, पृथ्वी आदि पंच तत्वों के प्रति भी प्रेम और अपनापन से ही धरती स्वर्ग तथा मानव देवता बन सकता है। अतः आओ उद्घोष करें-

सनातन धर्म के समान पंथ नहीं ।

वेद३उपनिषदों के समान ग्रंथ नहीं।।

राम३नाम के समान मंत्रा नहीं ।

श्री राम के समान भगवंत नहीं।।

सनातन धर्मियों में प्रारंभ में मात्रा एक गोत्रा था-ब्र› गोत्रा। तात्पर्य ब्र› से सृष्टि हुई, अतः परमात्मा का पुत्रा होने के कारण सभी का ब्र›गोत्रा हुआ। तत्पश्चात् ब्र›ाजी के द्वारा पत्नी सहित सप्त ऋषियों की सृष्टि की गई, जिनसे अनेक संततियां हुईं। इस प्रकार सप्त ऋषियों के नाम पर सात गोत्रा बने। उन ऋषियों की प्रभावशाली संततियों के नाम पर भी अलग३अलग गोत्रा बनते गए और सृष्टि का भी विस्तार होता गया। वर्तमान में हिन्दुओं के एक सौ पंद्रह गोत्रा हैं।

आप यह जानकर चकित हो जाओगे कि सभी गोत्रा लगभग सभी वर्णों व बहुसंख्यक जातियों में पाए जाते हैं। उदाहरणस्वरूप-कश्यप गोत्रा सभी वर्णों की बहुसंख्यक जातियों जैसे-ब्रा›ण, राजपूत, कायस्थ, गोरा, यादव, सुधी, कुशवाहा, केसरवानी, तेली, भगत, चमार, कहार, कानू, कलवार, कोयरी, वर्णवाल, जायसवाल, माहुरी, साहु, दुसाध, साहा, कूर्मी, धोबी, रवानी, रावत आदि अनेकानेक जातियों में मिलता है।

शांडिल्य, कश्यप, अगस्त्य, वशिष्ठ, भारद्वाज, अत्रोय, गौतम, विश्वामित्रा, अंगिरा, भृगु इत्यादि गोत्रा ब्रा›ण, शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय सभी वर्णों में और अलग३अलग कई जातियों में मिलते हैं। (तालियां)

अत्रि, भारद्वाज, कौशिक, भृगु, गौतम, विश्वामित्रा, वशिष्ठ, अगस्त्य, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, शाण्डिल्य, चंद्र, सूर्य, मन्य, वसु, वात्सयायन, कर्ण, सुरत, मनु, जैमिनी, सांख्य, विष्णु, गर्ग, भास्व, उपमन्यु एवं अन्य सभी गोत्रा चारों वर्णों और भारत के लगभग चारों दिशाओं में पाए जाते हैं। अतः यह मानना कि वह सोनार है, वह तेली है या दर्जी है, वह नाई है, धोबी है या रविदास आदि है, यह सब हम सबका पागलपन है। वास्तव में हम सब ऋषि संतानें हैं, केवल ऋषि संतानें (तालियां)।

भारत में उद्भुत पंथ३उपपंथ भी यदि अपने को सनातन धर्म से अलग घोषित करते हैं तो वे सहज ही वह नफरत की खुराक बनते देखे जाते हैं।

एकमात्रा सनातन धर्म ही है, जिसमें सभी प्राणियों के कल्याण की भावना, वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष, समस्त प्रकृति के प्रति सम्मान और व्यापक प्रेम अभिव्यक्त होता है। इन्ही भावों से प्रेरणा पाकर मानवाधिकार, पंथनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता आदि आधुनिक मतों का उद्भव हुआ है। समष्टि प्रेम की प्रेरणा सतत वेदों से निर्झरित होती रहती है।

सनातन धर्म में प्रेम की झलक

हिंदू धर्म में मानव जीवन का दो ही उद्देश्य है-


1. मोक्ष और 2. सर्व सृष्टि का हित साधन। इन दोनों को एक ही साधन में साधा जा सकता है। वह साधन है-प्रेम।

श्री राम के जीवन में एक साथ जहां आदर्श एवं उच्चतम मनुजता आकार पाती है, वहीं ईश्वरत्व की भी झलक झलकाती है। यही प्रेम तो सनातन धर्म की विशेषता है।

सद्गुरु कबीर साहब राम के परम भक्त हैं। वे कहते हैं-


राम नाम की लूट है , लूट सके तो लूट ।

फिर पाछे पछताएगा , जब प्राण जाएंगे छूट।।

अर्थात् ‘राम नाम की लूट है। लूट सको तो लूट लो। यदि इस जन्म में राम नाम की पूंजी को गांठ में नहीं बांध पाए तो केवल पश्चात्ताप हाथ लगेगा।’ इसलिए सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-

राम सुमिर राम सुमिर राम सुमिर मेरे भाई ।

सकल तजि राम सुमिर मेरे भाई।।

राम नाम सुमिरण बिन बूड़त सब चतुराई।।

अर्थात् ‘हे मेरे भाई! राम का सुमिरण करो। राम के सुमिरण के बिना सभी चतुराई व्यर्थ है।’

सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-

राम नाम निज अमृत सार ।

सुमिर सुमिर नर उतरहिं पार।।

‘राम नाम अमृत है। राम नाम सार है। जो भी राम नाम का सुमिरण किया, उसका बेड़ा पार है।’ इसलिए हे मेरे भाई! अन्य सब कुछ से मन को हटाकर राम का सुमिरण करो, राम का सुमिरण करो, राम का सुमिरण करो

सद्गुरु कबीर साहब भी अपने देशप्रेम से भावविभोर होकर कहते हैं-

हम वासी वा देश के , बारह मास बसन्त ।

प्रेम झरै विगसै कमल , भींजत है सब अंग।।

हम वासी वा देश के , जाति बरन कुल नांहि ।

शब्द मिलावा ह्नै रहा , देह मिलावा नांहि।।

वैसे इन साखियों का आध्यात्मिक अर्थ है, परंतु इसमें भौतिक अर्थ भी ध्वनित होता है, जो इस प्रकार है-

अर्थात् ‘हम उस देश (भारत) के वासी हैं, जहां बारहों महीने हर्षोल्लास रहता है, खिले हुए हृदयकमल से सतत अमृत एवं प्रेम झरता रहता है, जिसमें अंग३प्रत्यंग भींगते रहते हैं और हृदय आनंद३विभोर रहता है।

हम उस देश (भारत) के वासी हैं, जहां जाति३वर्ण का महत्व नहीं है। यहां देह का नहीं, शब्द३वाणी, आदिनाद की गंूज को महत्व दिया जाता है।’

भारत वह देश है, जहां पैगम्बर अथवा ईश्वर का पुत्रा नहीं आता, प्रत्युत स्वयं भगवान आते हैं। परमात्मा ने सृष्टि के आदि में ज्ञान देने योग्य मात्रा भारत को समझा। गीता के चौथे अध्याय के प्रथम श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं, ‘सृष्टि के आरंभ में मैंने (परमात्मा ने) सर्वप्रथम सूर्य को ज्ञान दिया।’

सृष्टि के आदि में परमात्मा ने भारत के चार ऋषियों- आदित्य, वायु, अग्नि और अंगिरा को ज्ञान देने के लिए चयन किया। उन्हीं चार ऋषियों ने परमात्मा के द्वारा दिए गए ज्ञान को चार वेद के रूप में सुरक्षित किया।

तदुपरांत त्रोतायुग में यानी आज से लाखों वर्ष पूर्व श्री राम ने दिव्य मानवीय गुणों को कहा ही नहीं, प्रत्युत जीकर दिखलाया।

तदुपरांत द्वापर युग में मतलब आज से पांच हजार वर्ष पूर्व परमात्मा की दिव्य शक्ति श्री कृष्ण ने गीता का अद्भुत ज्ञान दिया। इस समय तक पूरा संसार अज्ञान नींद में सोया हुआ था।

तीन हजार (3000) वर्ष पूर्व यहूदी, सत्ताइस (2700)सौ वर्ष पूर्व पारसी, पचीस (2500) सौ वर्ष पूर्व जैन और बौद्ध, दो हजार (2000) वर्ष पूर्व ईसाई, चौदह सौ (1400) वर्ष पूर्व इस्लाम आया।

भारतीय धर्म ही सनातन धर्म है, जो सनातन काल से चला आ रहा है और सनातन काल तक चलता रहेगा। बाकी धर्म आने३जानेवाले हैं। अतः गर्व से कहो, ‘हम सनातनी हैं। गर्व से कहो, हम भारतवासी हैं।’

श्री राम मानवीय गुणों के शिखर के पुष्प हैं। उनमें मनुजता के ऐसे३ऐसे दिव्य गुण प्रकाशित हुए हैं कि वे नर से नारायण बन गए हैं। इसलिए उन्हें पुरुषोत्तम यानी मनुष्यों में उत्तम कहा जाता है। वे हम सबके आदर्श मार्गदर्शक हैं। जब तक हम सब उनके जीवनादर्शों को अपने जीवन में उतार न लें, तब तक कबीर के दूसरे राम से परिचित न हो पाएंगे।

श्री राम का दूसरा गुण है-गुरुभक्ति। सद्गुरु कबीर साहब उनकी गुरुभक्ति का उदाहरण देते हुए कहते हैं-

राम कृष्ण से को बड़ा , तिनहुँ तो गुरु कीन्ह ।
तीन लोक के वे धनी , गुरु आगे आधीन।।

हमलोगों के मूल पूर्वज एक हैं और हम सभी ब्राह्मणवंशी हैं। कोई छोटा अथवा बड़ा, ऊंच अथवा नीच नहीं है। सभी के मूल पूर्वज अति विशिष्ट ऋषि सत्ता हैं या हम सभी के मूल प्रणेता३पूर्वज परमात्मा हैं। इसी की ओर इशारा करते हुए संत कबीर कहते हैं-

जात न पूछो साधु की , पूछ लीजिये ग्यान ।
मोल करो तलवार की , पड़ा रहन दो म्यान।।

अर्थात् ‘व्यक्तियों की जाति न पूछो, उसके ज्ञान की चर्चा करो, तलवार का मूल्य लगाओ, म्यान में न उलझो।’
उसी तरह वर्ण और जाति में न उलझकर मूल गोत्रा और पूर्वज पर ध्यान केन्द्रित करो। जो ऋषि३रक्त ब्राह्मणों में है, वही ऋषि३रक्त वैश्य, शूद्र और क्षत्रियों में भी है। हम सभी ऋषि सत्ता के अभिन्न अंश हैं।

एक अन्य पद में संत कबीर कहते हैं-‘जाति हमारी आत्मा।’ ‘आत्मा ही हमारी जाति है।’ एक अन्य वाणी है-
जाति जाति के पाहुने , जाति जाति के जाय ।
साहिब सबकी जाति है , घट घट रहा समाय।।

अर्थात् ‘गुण और कर्म के अनुसार मेहमान की भांति अस्थायी रूप से अलग३अलग जातियां बनी हैं और बनती रहती हैं, जो गुण३कर्म बदलते के साथ बदल जानेवाली हैं। वस्तुतः सबकी असली जाति आत्मा३परमात्मा है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-सभी के शरीरों में एक समान समाया हुआ है। इसलिए हम सब एक हैं।’

संत कबीर भी डंके की चोट से कहते हैं-
हम वासी वा देश के, जाति वरण कुल नाहिं।
‘हम उस देश (भारत) के वासी हैं, जहां जाति, वर्ण, वंश का कोई भेद३भाव नहीं है। सभी एक हैं।’

अतः आओ, हम सब एक३दूसरे के प्रति अपनापन का भाव र

कबीर, नानक आदि संतवाणियां उसी विशुद्धतम ज्ञान के अनुपम कोश हैं, जिसका वाहक वेद, गीता और प्राचीनतम ग्रंथ हैं। मनु ने जन्मना जाति व्यवस्था की वकालत नहीं की है। मनु की वर्णव्यवस्था पूरी तरह से मनुष्य की गुणवत्ता व स्वभाव पर टिकी हुई है।

जन्मना वर्णव्यवस्था को मान्य करने की प्रथा किसी भी सभ्य समाज को कलंकित करनेवाली प्रथा है। श्रीकृष्ण हों या मनु या अन्य विवेकसंपन्न ज्ञानीजन, उन्होंने इसे अस्वीकार करते हुए गुण, कर्म व स्वभाव को वर्णव्यवस्था का आधार बतलाया। इस वर्णव्यवस्था में कोई छोटा३बड़ा अथवा ऊंच३नीच या सम्माननीय व अछूत नहीं है।

इस्लाम, ईसाई, यहूदी, पारसी या बौद्ध, जैन, सिख, कबीरपंथादि संसार के समस्त पंथ३उपपंथ में ऐसी एक भी श्रेष्ठ वाणी नहीं है, जो पहले से ही सनातन धर्म में न हो।

आज जाति३वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर किया जाता है, जो शास्त्राविरूद्ध और गलत है। इस बुराई को निर्मूल करने का उपाय धर्मान्तरण नहीं, प्रत्युत समवेत पुरुषार्थ है। जो व्यक्ति अपनी रूग्ण मां को धक्का देकर घर से बाहर निकालकर पड़ोस की औरत को मां३मां करने लगता है, वह सभ्य नहीं, असभ्य कहलाता है। मां जो ममता और अपनापन दे सकती है, वह पड़ोस की औरत कभी नहीं दे सकती।

उसी तरह सनातन धर्म हमारी मां है, जिनमें जाति३पाति, ऊंच३नीच, छोटा३बड़ा आदि रोग आ गए हैं। इसका उपचार कीजिए, त्याग नहीं। यही हम संतानों का कर्तव्य है। इस रोग के हटते ही सनातन धर्म पुनः मार्तण्ड की तरह चमक उठेगा। सनातन धर्म सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है।

सनातन धर्म ब्राह्मणवादी या ऊंच३नीच का पोषक नहीं है। ऊंच३नीच, छोटा३बड़ा, भेद३भाव आदि सनातन धर्म में आगत विकृतियां है, इनका निवारण तत्काल होना चाहिए

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